निर्लज्जता की पराकाष्ठा कहें या पराकाष्ठा के पार निर्लज्जता। पी.जे. थॉमस ने सीवीसी की कुर्सी छोडऩे से इनकार कर दिया। तो सरकार ने घोटाले की फाइल से दूर रखने की दलील। विपक्ष ने भी संसद में सरकारी काम निपटाने में हंगामे के बीच ही सहयोग देना शुरू कर दिया। सो लोकतंत्र के मंदिर से पक्ष-विपक्ष की नौटंकी कब तक चलेगी, देखना होगा। यों पंद्रहवीं लोकसभा के फोटो सैशन की तैयारी पूरी हो गई। गुरुवार को सांसदों के फोटो खिंचेंगे, ताकि आने वाली पीढिय़ां इतिहास के तौर पर निहार सकें। पर संसद से पहले बात थॉमस की, जो लोक-लिहाज की परवाह किए बिना कह गए- मैं अभी भी सीवीसी का बिग बॉस। पर सवाल, जब सरकार टू-जी घोटाले की फाइल से थॉमस को दूर रख रही, तो पद पर रखने का क्या मतलब? जब सुप्रीम कोर्ट थॉमस की नीयत पर संदेह जाहिर कर चुका। तो घोटाले की फाइल से थॉमस को दूर रखने की सरकारी दलील और थॉमस का इस्तीफे से इनकार का क्या मतलब? सुप्रीम कोर्ट की पहली टिप्पणी के बाद ही गृह मंत्रालय से थॉमस की विदाई की खबर निकलने लगी थी। पर चिदंबरम से मुलाकात के बाद थॉमस का ऐसा तुर्रा क्यों? क्या यह कांग्रेस की कोई रणनीति या पोल-खोल की धमकी? चाहे जो भी हो, थॉमस की विदाई तय। अब कांग्रेस को यह तय करना कि सुप्रीम कोर्ट की चपत से ही थॉमस को चलता करती या चांटा खाकर। यों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज के.टी. थॉमस का मानना, पी.जे. थॉमस का हट जाना ही पद की गरिमा के हित में। पर जब सत्ता का नशा हो, तो कांग्रेस और थॉमस भला क्यों न इतराएं। तभी तो चौदहवें दिन भी संसद ठप हुई। पर सरकार और विपक्ष अपनी जिद से पीछे हटने को राजी नहीं। अब गतिरोध टूटने की सारी उम्मीदें दम तोड़ चुकीं। सो जरूरी संवैधानिक कामकाज निपटाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। पर तेरह दिन यानी तेरहवीं के बाद चौदहवें दिन सरकार के साथ-साथ विपक्ष की भी पोल खुल गई। विपक्ष जेपीसी की मांग पर अड़ा। पर इस कदर भी नहीं कि सरकार को मजबूर कर सके। तभी तो प्रणव मुखर्जी ने बुधवार को तडक़े विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज को फोन लगाया। अनुपूरक अनुदान मांग पारित कराने पर सहयोग मांगा। तो सुषमा ने इनकार के बजाए आडवाणी से गुफ्तगू कर एनडीए की मीटिंग बुलवा ली। मीटिंग में आडवाणी सरीखे नेताओं ने दलील दी- संवैधानिक कामकाज में रुकावट नहीं होना चाहिए। क्योंकि हमारी लड़ाई सरकार से है, संविधान से नहीं। सो विपक्ष ने हंगामे में ही अनुदान मांगें पारित कराने की हरी झंडी दे दी। प्रणव दा को संदेशा भेजा गया, तो प्रणव ने आशंका जताई। कहीं कोई विपक्षी सांसद बिल फाडऩे या स्पीकर टेबल तक पहुंचने की कोशिश तो नहीं करेगा। विपक्ष ने प्रणव दा को इस बात का भी पूरा भरोसा दे दिया। सो बुधवार को लोकसभा में अनुपूरक अनुदान मांगें पारित हो गईं। अब गुरुवार को राज्यसभा में पारित होंगी। इसी तरह रेलवे की अनुदान मांगें भी पारित कराई जाएंगी। यानी सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच की जुगलबंदी देखिए, एक तरफ जेपीसी की जिद। तो दूसरी तरफ बिल पास कराने में सरकार को सहयोग। अगर विपक्ष सचमुच भ्रष्टाचार के मुद्दे पर गंभीर, तो इसी दांव से सरकार को घुटने टेकने को मजबूर कर देता। अब अगर विपक्ष की यह दलील मान लें कि वह सरकार को अस्थिर नहीं करना चाहता। तो क्या जिस तरह बिल पास हुआ, क्या वह संवैधानिक? अगर सब कुछ हंगामे में ही निपट जाएगा, तो फिर संसद का क्या औचित्य? अगर सरकार और विपक्ष को संविधान की इतनी ही फिक्र। तो गतिरोध खत्म कर ऐसा फार्मूला निकालते कि संसद की गरिमा बरकरार रहती। पर दोनों को देश या संविधान की फिक्र कम, वोट बैंक की राजनीति अधिक। अगर सरकार के जरूरी कामकाज संसद में ऐसे ही निपट जाएं। तो भला कौन सी सरकार संसद चलाना चाहेगी। सरकार तो हमेशा इसी फिराक में रहती कि कम समय में अधिक काम निपट जाए। ताकि विपक्ष की घेरेबंदी से बचा जा सके। वैसे भी संसद की शक्तियों में आई गिरावट पर डा. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी मौजूं टिप्पणी कर चुके। उनके मुताबिक- यह सत्य है कि कानून बनाने एवं टेक्स लगाने की सर्वोपरि सत्ता संसद में निहित है। पर वास्तविकता यह है कि विधि अधिनियमों का गर्भाधान और जन्म मंत्रालयों में होता है। संसद में सिर्फ मंत्रोच्चारण के साथ उनका उपनयन संस्कार कर उन्हें औपचारिक यज्ञोपवीत दे दिया जाता है। सचमुच सैद्धांतिक तौर पर संसद की मर्जी से ही सरकार रह सकती। पर व्यवहार में केबिनेट ने संसद के काम और अधिकार हथिया लिए। तभी तो सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां भी सरकार को झकझोर नहीं पा रहीं। बुधवार को सरकार की नीतियों पर सवाल उठाते हुए कोर्ट ने फिर कहा- आंखों को जो दिख रहा है, उससे अधिक भी कुछ है। पर सरकार ने अब बेशर्मी का चश्मा पहन लिया। विपक्ष ने भी संसद के काम निपटाने में सहयोग दे दिया। सो जेपीसी नहीं, अब सत्रावसान की तैयारी। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने गुस्से में जो कहा और किया, सुनिए। बोले- क्या जेपीसी के सदस्य बनने वाले नेता पुलिस अधिकारी बनेंगे? यह कहकर मनीष तिवारी बीजेपी नेता राजीव प्रताप रूड़ी की कार में बैठकर निकल लिए। सो सवाल करनी नहीं, कथनी पर। जब कांग्रेस प्रवक्ता की जेपीसी के बारे में ऐसी सोच। तो फिर संसद चलाने पर इतना खर्च क्यों? क्यों न संसद का विसर्जन कर कांग्रेस को हमेशा के लिए सत्ता सौंप दें।
-----------
01/12/2010
Wednesday, December 1, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment