'आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों। इतनी जल्दी क्या है, जब जीना है बरसों।' रेलवे का मूल मंत्र अब यही हो गया। अपने नेता तो बरसों जीएंगे। आम आदमी यों ही हादसों का शिकार होता रहेगा। सो नीतिश कुमार के रेल मंत्री वक्त से ही टक्कर रोधी उपकरण (एंटी कोलीजन डिवाइस) हर रेल बजट भाषण में जगह पा जाता। भले अब तक पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे को छोड़ किसी ट्रेन में यह डिवाइस नहीं लगे। जब सीके जाफरशरीफ रेल मंत्री थे, तो कोंकण के एमडी बी राजामोहन को पूरी छूट मिली। उन ने डिवाइस तैयार तो किया। पर महंगी टेक्नोलॉजी की वजह से व्यापक अमल में नहीं लाया गया। भले हादसे-दर-हादसे मुसाफिर मरते जा रहे। मुआवजों से लेकर राहत तक धन पानी की तरह बह रहा। पर अपनी तकनीक का इस्तेमाल नहीं हो रहा। अपने नेताओं को तो विदेशी माल लाने में ही फायदा नजर आता। कम से कम इसी बहाने विदेश टूर का मौका मिल जाता। कुछ मातहत भी कमीशन से मालामाल हो जाते। सो विदेशी माल के आगे देशी की क्या औकात। अब अगर महंगी टेक्नोलॉजी से रेलवे को परहेज, तो अपनी ही रिसर्च डिजाइन एंड स्टेंडर्ड ऑर्गनाइजेशन की सुध क्यों नहीं लेती। जी हां, रेलवे की अपनी रिसर्च विंग है। पर अब तक कोई आविष्कार नहीं कर पाई। हर बार सिर्फ जुबानी तीर चलते। हर रेल मंत्री अपनी डफली आप ही बजाता। तभी तो नीतिश के बाद पासवान, लालू और अब ममता रेल मंत्री। पर रेल मंत्रालय के बदलते चेहरों के साथ सुरक्षा के मुकम्मल उपाय तो नहीं हुए। पर हर रेल मंत्री का भाषण अपग्रेड होता चला गया। अगर पुराने भाषण छोड़ दें, तो ममता बनर्जी की ओर से 24 फरवरी 2010 को पेश रेल बजट ही देख लें। अब तक एंटी कोलीजन डिवाइस तो लगे नहीं। पर ममता ने अबके ट्रेन के डिब्बे और इंजन भी टक्कर रोधी बनाने का एलान कर दिया। लगे हाथ विजन-2020 का खाका भी परोसा। सालाना एक हजार किलोमीटर रेल लाइन बिछाने का लक्ष्य। अगले दस साल में नेटवर्क में 25 हजार किलोमीटर के इजाफे की तैयारी। पर क्या रेलवे का इतना बड़ा नेटवर्क कोलकाता के एक कमरे में बैठकर चलाया जा सकता? ममता ने बजट भाषण में खुद बताया था। कैसे जब देश आजाद हुआ, तो 1950 में रेलवे के पास 53,596 किलोमीटर की लाइन थी। पर 58 साल बाद भी यह नेटवर्क 64,015 किलोमीटर पर सिमटा हुआ। यानी सालाना औसत 180 किलोमीटर रहा। पर जब रेलवे का इतिहास इतना बिगड़ा हुआ। तो ममता बनर्जी कायापलट को मंत्रालय में बैठना गवारा क्यों नहीं समझतीं? सचमुच जब भारत आजाद हुआ था। तब चीन के पास भारत की तुलना में एक चौथाई रेल लाइनें भी नहीं थीं। पर अब दुनिया में चीन का नेटवर्क सबसे बड़ा। सो अपने रेल मंत्रियों ने नया ट्रेंड शुरू कर दिया। बजट भाषण में लच्छेदार जुमलों से दिल जीतने की खूब कोशिश होती। भले ट्रेन में मुसाफिरों का सफर अंग्रेजी का सफर क्यों न हो। सच्चाई यही, रेलवे को नेताओं ने राजनीति की ट्रेन बना लिया। जिस राज्य का मंत्री बना, ट्रेन की दिशा उधर ही मुड़ गई। सो दुधारू गाय होकर भी रेलवे मरणासन्न दिख रही। आखिर बिना चारा रेलवे कब तक दूध दे? अब तो खड़ी ट्रेन में भी पीछे से टक्कर आम बात हो गई। पिछले साल 21 अक्टूबर को मथुरा के पास रुकी मेवाड़ एक्सप्रेस को पीछे से गोवा एक्सप्रेस ने टक्कर मार दी थी। फिर दो जनवरी को इटावा में लिच्छवी-मगध और गोरखधाम-प्रयागराज की ऐसी ही टक्कर हुई थी। ममता के चौदह महीने के टर्म में अब तक करीब दर्जन भर दुर्घटनाएं हो चुकीं। कुछेक में नक्सलवादियों का भी हाथ। जिनमें 27 अक्टूबर 2009 को राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बनाना और 28 मई 2010 को ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को पटरी से उतारना शामिल। सो ममता को अबके भी साजिश नजर आ रही। रेलवे जिम्मेदारी ओढऩे को तैयार नहीं। केबिन मास्टर अपनी चूक से इनकार कर रहा। तो रेलवे बोर्ड के डायरेक्टर विवेक सहाय ड्राइवर की चूक से। जांच के नाम पर सब अपनी जिम्मेदारी से बच रहे। पर अब तक की दुर्घटनाओं की जांच का नतीजा क्या निकला? किसकी जिम्मेदारी तय हुई और रेलवे ने क्या सबक लिया? सो अब तो यही लग रहा, न रेलवे दोषी, न महकमा चलाने वाले नेता। अगर सचमुच कोई जिम्मेदार, तो वह है आम आदमी। अपना लोकतंत्र है ही ऐसा, जहां जनता खुद के लिए खुद जिम्मेदार। अगर नेता जिम्मेदारी ओढऩे लगें, तो फिर राजनीति कौन करेगा। हर हादसे के बाद वही होता, जो सोमवार को हुआ। बंगाल के बीरभूम के निकट सैंथिया स्टेशन पर खड़ी वनांचल एक्सप्रेस को पीछे से आ रही उत्तरबंग एक्सप्रेस ने जोरदार टक्कर मारी। साठ से ज्यादा मौतें हो चुकीं, सैकड़ों घायल। पर हादसों पर राजनीति शुरू हो गई। ममता पर लालू-पासवान के साथ लेफ्ट-बीजेपी ने भी हमला बोला। तो निचोड़ यही था, ममता का ध्यान रेल भवन से ज्यादा रायटर्स बिल्डिंग पर। सो ट्रेन बेलगाम दौड़ रही। सोमवार को हादसे की जगह राहत ट्रेन राहत काम पूरा होने के बाद पहुंची। तो उसमें पीने का पानी भी नहीं था। जब नेताओं की आंख का पानी मर चुका, तो पीने का पानी कहां से मिले? क्या लच्छेदार भाषणों से ही हो जाएगी रेलवे की सुरक्षा? इंटर लॉकिंग सिस्टम, एंटी कोलीजन डिवाइस क्या सिर्फ कागजों तक रहेंगे? आखिर कब तक रेलवे को रेलवे के भरोसे छोड़ा जाए? अब तो सरकार को विशेष पहल कर महकमा दुरुस्त करना होगा। वरना नेताओं का तो कुछ नहीं, पर हम-आप मातम के लिए आंसू बचाए रखें। क्योंकि आज का हादसा कोई आखिरी नहीं....।
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19/07/2010
Monday, July 19, 2010
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really good shot...appreciable..
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