महंगाई संसद के लिए फिर डायन बन गई। जिसने जैसा ठाना, संसद के दोनों सदनों में वही किया। लालूवादी-मुलायमवादी वैल में घुसने में अबके भी अव्वल दिखे। नारा लगाया- रोको महंगाई, बांधो दाम, नहीं तो होगा चक्का जाम। पर कहीं वोटिंग की नौबत आई, सरकार ने सीबीआई दौड़ा दी। तो लालू-मुलायम का नारा पिछली बार की तरह फिर बदल जाएगा। याद है ना, जब प्रणव दा ने बजट में पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ा दीं। तो लालू-मुलायम विपक्ष के साथ गलबहियां कर नारा लगा रहे थे- जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बदलनी है। पर जब कटौती प्रस्ताव आया, तो लालू-मुलायम ने नारे में संशोधन कर दिया- जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बचानी है। पर अभी शुरुआत, सो लालू-मुलायम ही नहीं, माया भी अपनी माया दिखा रहीं। आखिर दिखाएं भी क्यों ना, जब मरीज डाक्टर के पास आएगा, तो फीस देनी ही होगी। सो फिलहाल समूचा विपक्ष सुर मिला रहा। पर वोटिंग की नौबत आई, तो महंगाई इस राजनीतिक तिकड़ी के लिए सोलह दूनी आठ हो जाएगी। सो जुगाड़ तंत्र में महारत हासिल कर चुके मनमोहन को भी महंगाई की फिक्र नहीं। मंगलवार को आरबीआई ने रेपो और रिवर्स रेपो रेट में फिर बढ़ोतरी कर दी। ताकि मध्यम वर्ग पर कर्ज का बोझ बढ़ जाए और मार्केट में तरलता बनी रहे। पर ऐसे उपाय पिछले छह साल से करती आ रही सरकार। फिर भी महंगाई नहीं रुकी। अब महंगाई रोकना सरकार के बूते में नहीं। सो येन-केन-प्रकारेण महंगाई दर घटाने की कोशिश। मनमोहन दिसंबर तक महंगाई दर पर काबू पाने का भरोसा दिला रहे। तो प्रणव दा दो महीने में। पर मनमोहन राज के पिछले छह साल में इतने भरोसे दिलाए गए, अब तो भरोसा शब्द भी अपना भरोसा खो चुका। तभी तो मनमोहन सरकार वोटिंग वाले नियम के तहत बहस से कन्नी काट रही। पर सत्तापक्ष हो या विपक्ष, किसी ने हार नहीं मानी। अलबत्ता रार ठन गई। विपक्ष कामरोको प्रस्ताव के तहत ही बहस का खम ठोक रहा। तो सरकार ने भी गांठ बांध ली, भले संसद का कामकाज रुक जाए, पर कामरोको प्रस्ताव मंजूर नहीं। यानी सरकार की नीयत में खोट। अगर महंगाई सचमुच काबू में आने वाली होती, तो सरकार खम ठोककर बहस को राजी होती। पर हंगामे के बावजूद सरकार के तेवर देखिए। लोकसभा में हंगामे के बीच ही मुरली ने तान छेड़ी। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने बयान दिया, तो कीमत बढ़ोतरी को ईको-फ्रेंडली बताया। दलील दी- पेट्रोल महंगा होगा, तो लोग न गाडिय़ां चलाएंगे, न प्रदूषण होगा। अब इसे सरकार की हताशा नहीं, तो और क्या कहेंगे। मुरली यह भूल गए, कीमत बढ़ोतरी का असर सिर्फ कार वालों पर नहीं हुआ। अलबत्ता रोजमर्रा की सभी चीजें महंगी हो गईं। पर बेसुरी सरकार से किसी सुर की उम्मीद ही कहां। साल भर से अनाज सडऩे की रपट आ रही। पर शरद पवार को कभी नहीं दिखा। अब मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया। लाखों टन अनाज क्यों सड़ रहा? सरकार से दो हफ्ते में जवाब मांगा। कहा- अनाज का एक भी दाना बरबाद नहीं होना चाहिए। इसे गरीबों में बांटा जाए। अगर विशेषज्ञों की मानें, तो देश में जितने टन अनाज सड़ रहा, उससे बीस करोड़ लोगों को साल भर का भोजन दिया जा सकता। पर पवार को क्रिकेट की फिक्र। मनमोहन को विकास दर की। सचमुच महंगाई की रफ्तार और पिछले छह साल में मनमोहन सरकार के बयान देखें। तो सरकार का नकारापन साफ दिखेगा। पर सरकार बेईमान, तो ईमानदार विपक्षी दल भी नहीं। महंगाई पर दो दिन का सांकेतिक हंगामा होगा। फिर किसी भी नियम के तहत बहस की खानापूर्ति होगी। पर महंगाई जहां है, उससे पीछे नहीं, आगे बढ़ेगी। अगर विपक्ष ईमानदारी से सरकार को घेरे, तो कोई मुरली देवड़ा ऐसी बेहूदी दलील देने की हिम्मत नहीं करेगा। पर बीजेपी धरना या अनशन कांची कामकोटि के शंकराचार्य की गिरफ्तारी पर करेगी। गोवा में राष्ट्रपति राज लगे, तो पणजी से जंतर-मंतर तक हिला दिया। पर बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व कैरोसिन-रसोई गैस के दाम में बढ़ोतरी पर वैसा आंदोलन क्यों नहीं करता? रैली करने या संसद में बहस की औपचारिकता से सरकार की हिटलरशाही बंद नहीं होगी। बात अधिक पुरानी नहीं, पर विपक्षी दलों के लिए नजीर। भले ममता बनर्जी फिलहाल यूपीए का हिस्सा। पर याद है ना, सिंगूर में किसानों की जमीन की खातिर 25 दिन तक आमरण अनशन किया। तो बंगाल से लेकर रायसिनी हिल तक हिल गया। तबके राष्ट्रपति कलाम ने खुद बुद्धदेव से दो बार बात की। आखिर वही हुआ, जो ममता ने चाहा। जब बंगाल जैसे वामपंथी गढ़ में छोटी सी पार्टी की नेता ममता इतना दम-खम दिखा सकतीं। तो राष्ट्रीय पार्टी बीजेपी क्यों नहीं? अगर आडवाणी-सुषमा-जेतली-गडकरी एलान कर दें। जब तक रसोई गैस और कैरोसिन की बढ़ी कीमतें वापस नहीं होतीं, धरने पर बैठे रहेंगे। सचमुच विपक्ष ऐसा ठान ले, तो सरकार की इतनी हिम्मत नहीं, जो कीमत वापस न ले। जनता भी ऐसे नेताओं को सिर-आंखों पर बिठाती। जैसे ममता को बंगाल में। पर जुझारूपन अब राजनीति की डिक्शनरी से हट गया। सो महंगाई पर जैसी सरकार, वैसा विपक्ष। कवि सुदामा पांडे धूमिल ने सही लिखा- संसद तेल की वह घानी है, जिसमें आधा तेल और आधा पानी है। और यदि यह सच नहीं, तो एक ईमानदार आदमी को अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों? जिसने सत्य कहा, उसका बुरा हाल क्यों?
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27/07/2010
Tuesday, July 27, 2010
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