Tuesday, July 13, 2010

भारत बनाम इंडिया, आधी हकीकत, आधा फसाना

साईं इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय। भक्ति काल में जब कबीर ने यह दोहा लिखा होगा, तो सोचा भी न होगा, दुनिया इतनी बदल जाएगी। अब जैसी अपने देश की तस्वीर, अगर कबीर वाणी की पैरोडी बने। तो यही होगा- साईं इतना दीजिए जामें आम आदमी मरता रहे,च् साधुज् मस्त होता जाय। सचमुच गरीब हर राजनीतिक जुमले में जुडक़र मर रहा। पर सरकार की नीतियां खास-उल-खास पर मेहरबान। यूएनडीपी की ताजा रपट ने अपने विकास के थोथे दावे की कलई खोल दी। रपट को मानिए, तो दुनिया के सबसे अधिक गरीब लोग भारत में रहते। यों अपने यहां तो गरीबी के पैमाने और आंकड़े को लेकर बहस ही छिड़ी हुई। पर यूएनडीपी के पैमाने से भारत में 42 करोड़ लोग गरीब। यानी 26 अफ्रीकी देशों से भी एक करोड़ अधिक गरीब भारत में। यूएनडीपी की नजर में गरीब वही, जो रोजाना एक डालर से कम की आमद पर जिंदगी बसर करे। यानी अपने यहां के हिसाब से देखें, तो 48-50 रुपए से कम कमाने वाला गरीब। पर सोचो, अर्जुन सेन गुप्त की 20 रुपए दिहाड़ी वाली रपट लागूं करें। तो गरीबी का आंकड़ा दुगुने से कहीं अधिक होगा। अर्जुन सेन कमेटी ने तो 84 करोड़ लोग गरीब बताए थे। पर यूएनडीपी ने जो गरीबी की खस्ता हालत बताई। उसके मुताबिक बिहार, यूपी, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और राजस्थान में गरीबों की बाढ़। रपट में इन आठ राज्यों में रहने वाले गरीबों की हालत सबसे अधिक गरीब अफ्रीकी देश इथोपिया और तंजानिया के लोगों जैसी। जहां न स्वास्थ्य की सुविधा, न शिक्षा की। बुनियादी सुविधाएं तो दूर, पीने को साफ पानी भी नहीं। अब कोई पूछे, जब मनमोहन सरकार सामाजिक क्षेत्र पर फोकस कर रही। तो कहां गया नेशनल रूरल हैल्थ मिशन, कहां है सर्व शिक्षा अभियान, कहां है शिक्षा का मौलिक अधिकार? गरीबी की तस्वीर को अगर शहर और गांव में बांटें। तो अपनी 135 करोड़ की आबादी में करीब 37 फीसदी बीपीएल। जिनमें 22 फीसदी ग्रामीण, तो 15 फीसदी शहरी आबादी। अकेले बिहार, यूपी, उड़ीसा में आधे से अधिक गरीब। पर पंजाब, दिल्ली में गरीब की संख्या कम। यों नरेगा जैसी योजना ने कुछ बदलाव किया। पर गरीब को गरीबी रेखा से बाहर लाने में अभी सफल नहीं हुई। सो सवाल समूची राजनीतिक व्यवस्था से। आखिर 63 साल बाद भी देश की तस्वीर ऐसी क्यों? आखिर ऐसी कौन सी नीति बन रही, जहां करोड़पति-अरबपति धन कुबेर बनते जा रहे और आम आदमी पके हुए आम की तरह पिचकता जा रहा। सिर्फ राजनीति ही नहीं, अपनी मीडिया भी कोई दूध की धुली नहीं। सनद रहे, सो याद दिलाते जाएं। जब अक्टूबर 2007 में अपने मुकेश अंबानी जगत अमीर बन गए। तो मीडिया की सुर्खियां बनीं। तब 31 अक्टूबर 2007 को यहीं पर लिखा था- सिर्फ अंबानी नहीं, 84 करोड़ की भी हो फिक्र। पर तबसे अब तक आम आदमी की फिक्र हुई, तो सिर्फ जुबां से। मनमोहन सरकार को तेल कंपनियों की सेहत की चिंता तो खूब, पर कभी आम आदमी के पीठ से चिपके पेट की फिक्र नहीं। एक तरफ देश की 42 करोड़ कहें या 84 करोड़, आबादी गरीब, तो दूसरी तरफ अकेले अंबानी जैसे सब पर भारी। अगर 1997 से अब तक के आंकड़े को देखें, तो करीबन सवा दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके। सन 1990 के दशक तक अपने देश की जीडीपी में कृषि का अनुपात पांच फीसदी होता था। अब महज एकाध फीसदी पर सिमटा हुआ। क्या यही है देश की मनमोहिनी अर्थव्यवस्था? हर चुनाव में वादे खूब होते। कभी परमाणु डील की बात, तो कभी पोकरण तिहराने की बात। पर कभी कोई नेता ताल ठोककर यह नहीं कहता- फलां वक्त तक देश से अमीरी-गरीबी की खाई मिटा देंगे। चारों तरफ खुशहाली ला देंगे। आखिर आम आदमी परमाणु डील या पोकरण-तीन से क्या करेगा? उसे तो दो जून की दाल-रोटी चाहिए। सिर ढकने को छत चाहिए। पर आजादी के 63 साल बाद आम आदमी रोजमर्रा की चीजों के लिए मोहताज। सरकार ने महंगाई से जिंदगी तबाह कर रखी। तो विपक्ष ने बंद से मुहाल कर रखी। फिर भी महंगाई कम नहीं होती। तो क्या ऐसी सूरत में भारत 2020 का सपना देख रहा? हम 2020 तक भारत को इंडिया बनाना चाह रहे। पर हकीकत क्या? क्या गरीबी-अमीरी की बढ़ती खाई से भारत विकसित देश बनेगा? क्या विकास दर आम आदमी की गरीबी दूर करेगी? हम मुकेश अंबानी के जगत अमीर बनने पर फक्र करते। सरपट दौड़ती विकास दर पर फक्र करते। सेसेंक्स और शेयर मार्केट की उछाल पर गदगद होते। पर देश की जो तस्वीर यूएनडीपी ने दिखाई, या अर्जुन सेन गुप्त कमेटी दिखा चुकी। कभी उधर ध्यान क्यों नहीं जाता? सरकार की नीतियां उन पांच फीसदी लोगों को ध्यान में रखकर बनतीं, जिनमें से चार फीसदी वोट डालना भी अपनी शान के खिलाफ समझते। पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल ने एक बार कहा था- अमीरी-गरीबी की खाई इसी तरह बढ़ी, तो वह दिन दूर नहीं जब गांव से लोग ट्रेक्टर में आएंगे और दिल्ली जैसे महानगर को लूट ले जाएंगे। अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने एक बार वायसराय लार्ड इर्विन को यहां तक कह दिया था, आपको शर्म आनी चाहिए, एक आम भारतीय से पांच सौ गुना अधिक आपकी आमदनी। पर आज के जमाने में अमीरी-गरीबी की खाई 80 से 85 लाख गुना बढ़ चुकी। पर आम आदमी की ओर कौन ध्यान दे। आम आदमी किसी राजनीतिक दल को चुनावी चंदा जो नहीं देता। सो जो देवत है, वो पावत है।
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13/07/2010

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