Wednesday, July 14, 2010

तो आगे भी जुबां से ही मिटाते रहेंगे नक्सलवाद!

नक्सलवाद पर एक और मीटिंग निपट गई। अब नक्सल प्रभावित जिलों में चार सौ थाने बनेंगे। हर थाने को सालाना दो करोड़ की सहायता मिलेगी। राज्यों में स्पेशल पुलिस आफीसरों के पद बढ़ेंगे। पर सबसे अहम फैसला हुआ, चार राज्य मिलकर यूनीफाइड कमांड बनाएंगे। पूरे ऑपरेशन में केंद्र सरकार तंत्रीय सुविधा मुहैया कराएगी। हैलीकॉप्टर दिए जाएंगे। यूनीफाइड कमांड में सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल को कमान सौंपी जाएगी। सीआरपीएफ में भी डीजी (एक्शन) की तैनायी होगी। यानी यह तो हुई नक्सलियों पर कार्रवाई की तैयारी। दूसरी तरफ योजना आयोग एक हाई पॉवर कमेटी बनाएगा। जो नक्सली क्षेत्र में विकास योजनाओं की जरूरत और हालात पर सुझाव देगी। सडक़ संपर्क सुधारे जाएंगे। प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल पर विशेष फोकस करेगी सरकार। पर कार्रवाई और विकास एक साथ कैसे संभव होगा? नक्सलियों की सोच यही, अगर सरकार रोड बना रही, तो उसका इस्तेमाल कार्रवाई के लिए होगा। सो नक्सली लैंड माइंस बिछा सडक़ ही नेस्तनाबूद कर देते। पर नक्सल समस्या को लेकर मीटिंग पीएम मनमोहन ने बुलाई थी। सो केंद्र सरकार सोनिया और दिग्विजय की सोच के साथ कदमताल करती दिखी। कुल मिलाकर मनमोहन सरकार ऊहापोह में ही फंसी। मीटिंग तो बुला ली। पर केंद्र की ओर से कोई ठोस फार्मूला नहीं। सारा दारोमदार राज्यों पर ही छोड़ दिया। छह साल बाद यूनीफाइड कमांड की सुध ली। पर प्रस्ताव को अधकचरा बना दिया। वाजपेयी सरकार ने यूनीफाइड कमांड की पहल की थी। पर मनमोहन ने कमान संभालते ही ठंडे बस्ते में डाल दिया। पहली पारी में साढ़े चार साल होम मिनिस्टर रहे शिवराज पाटिल तो वैसे ही नक्सलियों को अपना भाई बताते रहे। जैसा बुधवार को बीजेपी के सहयोगी नीतिश कुमार ने बताया। यों अच्छा हो, इन्हीं दोनों को नक्सलवादियों से वार्ता के लिए भेज दिया जाए। हो न हो एक भाई दूसरे भाई की बात मान ले। अब जरा नक्सलियों को भाई बताने वाले नेता कुछ नक्सली हमले भी याद रखें। छत्तीसगढ़ की हाल की घटनाओं को लें, तो कैसे नक्सलियों ने सुरक्षा बलों को मारा। फिर सिर धड़ से अलग किया। अगर नेताओं को सुरक्षा बल या आम आदमी का खून, खून नहीं लगता। तो याद दिलाते जाएं, नेताओं की बिरादरी के ही थे सुनील महतो। झामुमो के लोकसभा सांसद थे। पांच मार्च 2007 को जमशेदपुर के निकट केसरपुर गांव में फुटबाल मैच का ईनाम बांटने गए थे। तभी नक्सलवादियों ने मंच पर पहुंच सांसद के सुरक्षा गार्ड से बंदूक छीनी। पहले सुरक्षा गार्डों को मारा। फिर सांसद सुनील महतो को गोली से भून दिया। पर नक्सली करतूत यहीं खत्म नहीं हुई। नक्सलियों ने उसके बाद जो किया, उसे देख भले नेताओं का खून न खौले। पर आम नागरिक का खून खौल उठेगा। नक्सलवादियों ने सांसद को गोली मारने के बाद लाश पर कूद-कूद कर नृत्य किया। खुशियां मनाईं, माओवादी जिंदाबाद के नारे लगाए। पर नीतिश हों या पाटिल, दिग्विजय हों या सोनिया, कौन समझाए। यों पी. चिदंबरम ने लकीर पीटने के बजाए ऑपरेशन ग्रीन हंट के जरिए नई लकीर खींची। पर दस जनपथ से आए फरमान ने चिदंबरम के हाथ जकड़ दिए। मजबूर चिदंबरम ने छह अप्रैल को दंतेवाड़ा हमले के बाद इस्तीफे की पेशकश भी कर दी थी। सो मजबूरी में ही सही, अब चिदंबरम भी अपनों के रंग में रंग गए। दंतेवाड़ा कांड के बाद नक्सलियों की हरकत को गृह युद्ध करार देने वाले चिदंबरम ने बुधवार को कांग्रेसी फार्मूला ही अपनाया। नक्सलवाद को राज्य की कानून व्यवस्था का मुद्दा मान यूनीफाइड कमांड का जिम्मा भी राज्य के सिर ही छोड़ दिया। केंद्र राज्यों को संसाधन मुहैया कराएगा। पर उपलब्धता के आधार से। यानी हैलीकॉप्टर होगा, तो नक्सली क्षेत्र में तैनाती होगी। नहीं तो भगवान भरोसे। पर जुबानी सख्ती भी खूब दिख रही। चिदंबरम बोले- नक्सलियों को जज नहीं बनने देंगे। पर कोई पूछे, आप क्या कर लोगे। जब सारा मामला राज्य पर ही छोड़ दिया। नक्सलवाद को राष्ट्रीय समस्या मानने के बजाए कुछ राज्यों की समस्या मान रहे। तो कैसे नक्सलवाद का खात्मा होगा? पीएम ने सीएम की मीटिंग बुलाकर महज खानापूर्ति की। हर बार की तरह अबके भी भाषणबाजी हुई। तो एकीकृत कमान के साथ-साथ फंड की कमी न होने देने का भरोसा। नक्सलियों ने कितने लोगों को मारा, यह भी बताया। चिदंबरम के मुताबिक 2004 से 2008 के बीच सालाना औसतन पांच सौ आम नागरिक मारे गए। अब जरा नक्सली हमले की घटना के आंकड़े देखिए। साल 2006 में 930 हमले हुए। 2002 में 1465, 2003 में 1597, 2004 में 1533 और 2005 में 1608 जगहों पर नक्सली हमले हुए। हर बार वही भाषणबाजी, सघन कार्रवाई करेंगे। बख्शा नहीं जाएगा। पर सचमुच में अपनी व्यवस्था का नासूर नक्सलवाद कब खत्म होगा? यूनीफाइड कमांड की बात कोई नई नहीं। मुख्यमंत्रियों की मीटिंग हर साल दो-चार दफा हो ही जाती। पर बयानों में कोई फर्क नहीं होता। अब आप मार्च 2007 में सांसद सुनील महतो की नृशंस हत्या से पहले की सीएम मीटिंग में पीएम मनमोहन का एलान देख लो। तब कहा था- 'नक्सलियों के खिलाफ राज्य अब संयुक्त अभियान छेड़ेंगे। जिसके लिए केंद्रीय कोष की कमी नहीं होने दी जाएगी।' अब करीब साढ़े तीन साल बाद आज का बयान देखिए। आखिर साढ़े तीन साल बाद महज ढाई कोस भी क्यों नहीं चल पाई सरकार? यानी बुधवार की मीटिंग का मतलब साफ, आगे भी ऐसे ही जुबान से नक्सलवाद मिटाते रहेंगे।
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14/07/2010

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