Tuesday, July 6, 2010

सिर्फ पवार नहीं, अब तो पूरी सरकार थक चुकी!

तो बंद के बाद अब आंकड़ों की जंग शुरू हो गई। बीजेपी ने सरकार से जवाब मांगा, बताए बंद से हुए नुकसान के आकलन का क्या पैमाना? भारत बंद की सफलता ने सचमुच विपक्ष में जोश भर दिया। सो मंगलवार को सरकारी रपट से ही सरकार पर हमला बोला। रविशंकर प्रसाद बोले- पेट्रोलियम मंत्रालय की रपट के मुताबिक वर्ष 2009-10 में तेल कंपनियों ने 4663.78 करोड़ का मुनाफा कमाया। फिर हर कंपनी का अलग-अलग मुनाफा भी बताया। यानी तेल कंपनियों के घाटे में होने की दलील महज शिगूफा। सचमुच सरकार ने पेट्रोल-डीजल को राजस्व का कुआं बना लिया। सरकारी इश्तिहारों में कैरोसिन की बढ़ोतरी पर पाकिस्तान जैसे देश के नाम तो गिना दिए। पर यह छुपा गई, कैसे पाक में 26 रुपए लीटर पेट्रोल मिल रहा। अपने से गरीब देश बांग्लादेश में भी 22 रुपए कीमत। पर भारत में 50 रुपए के पार हो चुका। औसतन पेट्रोल की बेसिक कीमत साढ़े सोलह रुपए प्रति लीटर। पर केंद्र सरकार का टेक्स करीबन 12 रुपए, उत्पाद शुल्क करीब दस रुपए। राज्यों का टेक्स करीबन आठ और वैट चार रुपए। अब कोई चीज तिगुने दाम पर बिके, फिर भी घाटे की बात हो। तो कौन भरोसा करेगा। पर महंगाई बेलगाम हो चुकी, तो शरद पवार अपना बोझ कम करना चाह रहे। पीएम से मिलकर गुहार लगा चुके। सो मानसून सत्र से पहले मनमोहन केबिनेट में फेरबदल की तैयारी। पर महंगाई की माथापच्ची छोड़ पावर की जोर-आजमाइश में जुटी कांग्रेस-एनसीपी। कांग्रेस पवार से खाद्य-आपूर्ति मंत्रालय लेकर अपने पास रखना चाह रही। ताकि खाद्य सुरक्षा बिल का श्रेय सिर्फ कांग्रेस को मिले। पर पवार चाह रहे, एनसीपी कोटे से एक और मंत्री बने। अब सोचो, पवार का बोझ भले कम होगा। पर देश का खर्चा तो बढ़ेगा ही। पवार विभाग छोडऩे को राजी। तो क्या नए मंत्री को सैलरी भी अपने हिस्से में से देंगे? नया मंत्री होगा, तो नया नौकर-चाकर-स्टाफ-गाड़ी-बंगला सब चाहिए। यानी आम आदमी तो पहले ही पवार को झेल रहा था। तो क्या अब पवार जैसे दो झेलने पड़ेंगे? आखिर पवार करते ही क्या, जो काम का बोझ हो? जब-जब मुंह खोला, सिर्फ महंगाई बढ़ाई। इससे बेहतर तो पवार का बोझ कम हो जाए। यों काम के बोझ से सिर्फ पवार ही नहीं थके, ऐसा लग रहा, पूरी सरकार थक चुकी। सचमुच सरकार के पास कोई नीति नहीं। सिर्फ राजनीतिक मैनेजमेंट से सरकार घिसट रही। अब अजित सिंह की रालोद को यूपीए में शामिल करने की भी तैयारी चल रही। ताकि मानसून सत्र में विपक्ष महंगाई पर तेवर दिखाए। तो सरकार का अस्तित्व खतरे में न दिखे। यों विपक्ष को महंगाई का मुद्दा पहली बार फैसलाकुन दिख रहा। पिछले लोकसभा चुनाव में भी महंगाई मुद्दा थी। पर बीजेपी के एजंडे में तीसरे-चौथे नंबर का मुद्दा रही। मनमोहन का कमजोर नेतृत्व, आतंकवाद जैसे मुद्दे प्राथमिक रहे। पर अब भारत बंद में जनता के गुस्से का असर दिखा। तो संसद में फिर आर-पार की तैयारी। पर संसद का रिकार्ड यही बतला रहा, विपक्ष ने रार ठानी, तो बहस की रस्म अदायगी हो जाएगी। यही तो हुआ था बजट सत्र की शुरुआत में। विपक्ष ने जिद ठानी, तो सरकार ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस से पहले महंगाई की बहस पूरी करा दी। पर हुआ क्या, महंगाई तो अपना मुंह फैलाती ही चली गई। अब मंगलवार को बंद पर आडवाणी की टिप्पणी आई। तो यही लगा, संसद में सिर्फ रस्म अदायगी होगी। भारत बंद से हुए नुकसान की खबर से आहत दिखे। बोले- अबके बंद से यह टीका-टिप्पणी बंद होगी कि विपक्ष महंगाई के मुद्दे पर पर्याप्त कदम नहीं उठा रहा। अब आडवाणी की इस टिप्पणी का क्या मतलब? यही ना, एक भारत बंद, और जिम्मेदारी की इतिश्री। सो जब विपक्ष रस्म निभा चुप हो जाएगा। तो सरकार से राहत की क्या उम्मीद। महंगाई हो या आंतरिक सुरक्षा का मसला या फिर विदेश नीति। मनमोहन सरकार ढुलमुल ही दिखती। अब पाकिस्तान ने 17 आतंकी संगठनों पर बैन लगाया। टास्क फोर्स बनाकर आगे बढऩे की तैयारी की। इसी में मुंबई हमले से जुड़ी जमात-उद-दावा भी शामिल। पर पाकिस्तान ने यह कदम भारत के दबाव में नहीं उठाया। अलबत्ता जब पाक खुद आतंक का शिकार हुआ, अमेरिका को खतरा दिखा। तो यह कदम उठाया गया। सचमुच जब अपने देश में आतंक जैसे मुद्दे पर भी राजनीतिक आम सहमति नहीं होगी। तो कूटनीतिक सफलता की उम्मीद ही कैसे। अब इशरत जहां का ही केस देख लो। जब शिवराज पाटिल होम मिनिस्टर थे। तो कोर्ट में हलफनामा दिया, तो इशरत को लश्कर का आतंकी कबूला। पर चिदंबरम के टर्म में हलफनामा पलट गया। अब मुंबई हमले का मुख्य साजिशकर्ता अमेरिका में बंद डेविड कोलमैन हेडली का खुलासा हुआ। तो इशरत जहां तक बात पहुंच गई। हेडली ने खुलासा किया, इशरत लश्कर की आत्मघाती थी। अब हेडली से पूछताछ करने कोई नरेंद्र मोदी की टीम नहीं, अलबत्ता चिदंबरम की एनआईए गई थी। सो कब तक आतंकवाद और मजहब का घालमेल चलेगा? सिर्फ आतंक ही नहीं, नक्सलवाद पर भी ढोंग हो रहा। मंगलवार को होम सैक्रेट्री जीके पिल्लई ने नक्सलवाद के खिलाफ सेना की तैनाती से इनकार कर दिया। पर यह भी कहा, नक्सलवाद के खात्मे में सात साल लगेंगे। तो क्या तब तक खूनी तांडव चलता रहेगा? सरकार इतनी कन्फ्यूज्ड, अब चौदह जुलाई को नक्सल प्रभावित राज्यों की बैठक बुलाई। उधर कश्मीर अलगाववाद की आग में झुलस रहा। मंगलवार को श्रीनगर में बेमियादी कफ्र्यू लग गया। अपने सुरक्षा बलों पर दबाव बनाया जा रहा।
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06/07/2010

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