इंडिया गेट से
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पश्चाताप के आंसू: कितने
घडिय़ाली, कितने सच?
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संतोष कुमार
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फिजां बदली, तो बीजेपी को अपना घाव दर्द देने लगा। इतिहास का पन्ना कुरेद मरहम लगा रही। पर पहले बात अध्यक्षी घुड़दौड़ की। नितिन गडकरी गुरुवार को दिल्ली आए, और निकल लिए। झंडेवालान में हाजिरी लगाई। तो अशोका रोड पहुंच रामलाल से दो घंटे की गुफ्तगू। सो सवाल हुआ, तो गडकरी ने कह दिया- 'मैं किसी दौड़ में शामिल नहीं।Ó वाकई खुद से गडकरी या कोई और दौड़ में शामिल नहीं हो सकता। दौड़ाने का जिम्मा तो मोहन भागवत ने संभाल रखा। सो जिसे चाहें, डंडा थमा दें। पर रिटायरमेंट को मजबूर आडवाणी भी खूंटा गाड़े बैठे। अब अध्यक्ष गडकरी बनें, या मोदी, शिवराज, पारिकर या कोई डार्क हॉर्स। पर बीजेपी का झगड़ा ऐसी मजाक बन चुका। अशोका रोड में लोग कहने लगे। आडवाणी ने संघ को कुछ यों संदेशा भेज दिया। तुम मुझे न चाहो, तो कोई बात नहीं। किसी और को चाहोगी, तो मुश्किल होगी। यानी भागवत चाहे लाख घोड़े दौड़ा लें। आडवाणी की मर्जी के बिना किसी को अध्यक्ष नहीं थोप सकते। पर दिल्ली से बाहर के अध्यक्ष वाला भागवत का बयान हो या आडवाणी-राजनाथ की खेमेबाजी। बीजेपी खुद में मजाक बनकर रह गई। गुरुवार को नितिन गडकरी बीजेपी हैड क्वार्टर पहुंचे। तो खबरनवीसों तक सूचना पहले पहुंच गई। सो अपनी बिरादरी वालों ने भावी अध्यक्ष का तमगा थमा बधाइयां दे दीं। किसी ने कहा, चार्ज लेने आए हैं। तो किसी ने कहा, फाइल देखने। पर अब शायद मजाक की अति हो चुकी। सो बीजेपी मानो दर्द से कराह रही। बीजेपी के मुखपत्र 'कमल संदेशÓ के ताजा अंक में इसी बात का रोना-धोना। बीजेपी अब खुद से सवाल पूछ रही, जब संगठन सर्वोपरि है। तो फिर ऐसा क्यों...? अब शायद बीजेपी के नेता या वर्कर कम से कम मीडिया पर तो आरोप नहीं मढ़ेंगे। खुद बीजेपी कबूल रही। पराजय की मार झेलने के बाद जो हुआ, बीजेपी जनता को क्या मुंह दिखाए। वर्करों की भावना पहली बार 'कमल संदेशÓ में उभरी। तो हर वर्कर अपने आला नेताओं से यही पूछ रहा- 'हम जवाब क्या दें?Ó पर 'कमल संदेशÓ का संपादकीय भी फ्लैश बैक से शुरू हुआ। सो बानगी आप खुद देख लो। जैसी हार 2004 में हुई, वैसी ही 2009 में भी। फर्क इतना, तब एनडीए सरकार में था। अबके विपक्ष में। उस समय भी महाराष्टï्र, अरुणाचल, हरियाणा में बीजेपी हारी। इस बार भी यही हुआ। पर 2004 और 2009 के माहौल में जमीन-आसमान का फर्क। अभी भी पांच-सात राज्यों में सरकार होने का गर्व। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शहादत। बीजेपी के कोर मुद्दे- हिंदुत्व की विचारधारा, अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता की भी याद ताजा की। निराशा और हताशा से उबरने को जनसंघ से बीजेपी के सफर का भी जिक्र। जब पुरोधाओं ने तिल-तिल जलकर जनसंघ का 'दीयाÓ जलाया। गांव-गांव तक 'कमलÓ पहुंचाया। मनमोहन सरकार की पहली पारी में विधानसभा चुनाव जीतने का खूब बखान। ताकि पार्टी हताशा से निकल सके। बिहार में लालू राज समाप्त किया। झारखंड में संविधान की आन बचाई। पंजाब, हिमाचल और उत्तराखंड कांग्रेस से छीन लिए। प्रतिष्ठïा का मुद्दा बना गुजरात चुनाव भी कांग्रेस के मुंह पर तमाचा रहा। बीजेपी को उत्तर भारतीयों की पार्टी कहा गया। पर दक्षिण के कर्नाटक में परचम लहरा येदुरप्पा सीएम बने। नगालैंड में गठबंधन की सरकार बनी। यानी 'कमल संदेशÓ के पहले पार्ट में इतिहास से सिर्फ सुनहरे पन्ने निकाले गए। पर जिन्ना एपीसोड, उमा भारती प्रकरण, खुराना का दिल्ली प्रेम, कल्याण सिंह का जाना, राजस्थान और गुजरात की उठापटक तो आम बात रही। फिर भी इतिहास के काले पन्ने नहीं कुरेदे गए। पर अब जरा कबूलनामे के दूसरे पार्ट पर नजर फिराएं। तो राजस्थान का वसुंधरा एपीसोड और कर्नाटक का येदुरप्पा एपीसोड बीजेपी को झकझोर गया। सो 'कमल संदेशÓ में साफ लिखा गया- 'राजस्थान में हालत पतली। फिर भी राजस्थान को लेकर हाल में जो दृश्य पैदा हुआ। उससे देश भर के कार्यकर्ताओं का मन दुखी हुआ। आखिर बिना अनुशासन और दल की एकता के हम कहां रहेंगे?Ó यानी वसुंधरा प्रकरण पर भले उनके समर्थक डींगें हांक बीजेपी को ठेंगा दिखा रहे। नेता के आगे संगठन को बौना बता रहे। उनके लिए साफ नसीहत, संगठन ही सर्वोपरि। राजस्थान और दिल्ली की हार गले नहीं उतर रही। सो 'कमल संदेशÓ के जरिए बीजेपी अब बीजेपी से ही सवाल पूछ रही। हम कमजोर कहां हैं? हमारी कमजोरी क्या है? वक्त रहते कमजोरी दूर करने की जरूरत। दोषारोपण से काम नहीं चलेगा। यह बात नेतृत्व को समझनी ही होगी। आखिर ऐसे कौन से हालात, जो बीजेपी यहां तक पहुंच गई? अब बीजेपी के नेता 'कमल संदेशÓ में उठाए सवालों को कितनी गंभीरता से लेंगे, यह तो वही जानें। पर 2004 और 2009 के बाद के माहौल में बड़ा फर्क। तब बीजेपी सत्ता से बेदखल हुई थी। पर कुछ विधानसभा में जीती, तो जश्र मनाया। हारी, तो सबक नहीं लिया। अबके 2009 में सत्ता की उम्मीद थी, पर जैसे प्यासा कुएं के पास जाकर लौटने को मजबूर हो। वैसी ही झल्लाहट बीजेपी के चेहरे पर। सो बीजेपी के पश्चाताप के आंसू, कितने घडिय़ाली, कितने सच, यह तो समय ही तय करेगा।
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Thursday, November 12, 2009
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