इंडिया गेट से
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मैडल वापसी काफी नहीं,
'राठौरों' से मुक्ति कब?
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संतोष कुमार
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सोचो, मीडिया आवाज न उठाता। रुचिका केस में अदालती फैसले को दिन का घटनाक्रम मान आगे बढ़ जाता। तो क्या बात इतनी दूर तलक जाती? क्या 19 साल से कुंभकर्णी नींद सोई सरकार जागती? अब रुचिका के गुनहगार एसपीएस राठौर पर मुकदमों का बोझ। होम मिनिस्ट्री भी मैडल छीनने का फैसला कर चुकी। तो यह अपनी मीडिया की वाहवाही नहीं। अलबत्ता फर्ज के मुताबिक सजग प्रहरी की भूमिका निभाई। पर कटघरे में रसूख की राजनीति। आखिर जब तक जनता सड़कों पर नहीं उतरती। तब तक व्यवस्था के कान पर जूं क्यों नहीं रेंगती। अब होम सैक्रेट्री जी.के. पिल्लई की रहनुमाई वाली कमेटी ने मैडल वापस लेने की सिफारिश कर दी। तो हरियाणा के सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डïा की फुर्ती देखिए। इधर कमेटी की मीटिंग में फैसला होना था। उधर तड़के ही हुड्डïा की चि_ïी चिदंबरम को पहुंच गई। मैडल वापस लेने की अर्जी लगा दी। पर हुड्डïा कोई नवा-नवा सीएम नहीं। पांच साल से हरियाणा की कुर्सी पर काबिज। पर राठौर के खिलाफ सिफारिश तब भेजी। जब केंद्र सरकार मैडल छीनने का मन बना चुकी थी। पर अहम सवाल, मैडल छीनने से क्या होगा? इन 19 साल में हरियाणा और केंद्र में कई सरकारें आईं-गईं। पर राठौर के चेहरे से मुस्कराहट नहीं गई। जब 1990 में रुचिका के साथ छेड़छाड़ का मामला आया। तो तबके डीजीपी आर.आर. सिंह की विभागीय जांच में राठौर दोषी पाए गए। पर राठौर की राजनीतिक पकड़ ने बाल बांका न होने दिया। अब 19 साल बाद पदक छीनने से क्या रुचिका के परिवार को शांति मिलेगी? संसद पर हमले के शहीदों के परिजनों ने दो साल पहले मैडल राष्टï्रपति के लौटा दिए। पर सरकार की बेशर्मी देखिए। न आतंकी अफजल को फांसी चढ़ाई। न शहीदों के परिजनों को कोई ऐसा भरोसा दिलाया, जिससे मैडल वापस ले सकें। यानी सरकार की निगाह में मैडल अहमियत नहीं रखते। आखिर मैडल और सम्मान को सरकार झुनझुने के तौर पर इस्तेमाल करती। वैसे भी मैडल बांटने के सिर्फ दो पैमाने। पहला- सत्ता की चारणगिरी। दूसरा- सहानुभूति बटोरने और उपलब्धियां भुनाने की। भले सरकार किसी भी राजनीतिक दल की हो। अब आप खुद ही देख लो। जब वाजपेयी पीएम थे। डा. चितरंजन राणावत ने घुटने का आपरेशन किया। तो राणावत को पद्म श्री मिल गया। राणावत की काबिलियत पर सवाल नहीं। सवाल सरकार के इरादे पर। क्या पीएम के घुटने का आपरेशन पद्म श्री का पैमाना? अगर ऐसा, तो अबके 26 जनवरी पर पीएम मनमोहन की हर्ट सर्जरी करने वाले डाक्टर को क्यों न मिले पद्म श्री? अभी हाल का किस्सा लो। तो प्रख्यात कवि अशोक चक्रधर ने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के खूब स्लोगन रचे। सो चुनाव बाद कांग्रेस ने चक्रधर को हिंदी अकादमी दिल्ली का उपाध्यक्ष बना दिया। पर काफी विरोध हुआ। कई बड़े लोगों ने इस्तीफा दे दिया। तो भी सरकार ने फैसला पलटा नहीं। अलबत्ता चक्रधर को एक और हिंदी संस्थान का अध्यक्ष बना दिया। अब दो-तीन साल पहले का एक अजीब-ओ-गरीब किस्सा भी देख लो। छत्तीसगढ़ में एक ऐसे शिक्षक को राष्टï्रपति पुरस्कार मिला। जो आठ साल से स्कूल ही नहीं गए। अलबत्ता पदस्थापना के तौर पर सीएम सैक्रेटेरिएट में रहे। सो सीएम से नजदीकी ने राष्टï्रपति पुरस्कार दिला दिया। गुजरात के डी.जी. बंजारा फर्जी एनकाउंटर कर मैडल पाते गए। पर अपनी सरकार कभी पानी बाबा के नाम से मशहूर राजेंद्र सिंह जैसे लोगों के बारे में नहीं सोचती। भले राजेंद्र सिंह को मैग्सेसे पुरस्कार किसी अन्य देश से क्यों न मिल जाए। सहानुभूति के लिए शहीदों के परिजनों को अवार्ड देना तो परंपरा बन गई। पर उपलब्धियां भुनाने को भी हरभजन, धोनी जैसों को पद्म श्री मिल जाता। भले विज्ञापनों की शूटिंग में व्यस्त धोनी-हरभजन के पास देश का नागरिक सम्मान लेने की फुरसत न हो। पर राजनीति और अफसरशाही में चोली-दामन का ऐसा रिश्ता बन चुका। जो एक-दूसरे के बिना नंगा दिखे। सो नेता को भी रसूख चाहिए। अफसरशाही को भी राजनीतिक वरदहस्त। सो दोनों मिल-बांट कर रेवड़ी खाते। अपने-अपनों को मैडल और सम्मान दिला जाते। पर उंगली न उठे, सो एकाध बाबा आम्टे जैसे लोगों को भी सम्मान दिया जाता। ताकि एक ईमानदार-योग्य की छतरी में सारे बेईमान समा जाएं। अफसरानों में किसी एक राजनेता को गॉड फादर मानकर उसके इशारों पर चलने की आदत। सो राजनीतिक कमिटेड अफसरों को ईमानदार और योग्य अफसरों की वरिष्ठïता लांघकर पुरस्कृत करने का भी चलन आम। तभी तो खुद अफसर रहे देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने अपनी अफसरशाही को 'पॉलिश्ड कॉल गल्र्स' की उपाधि दी थी। आजादी से पहले और अबकी अफसरशाही में कोई खास फर्क नहीं। सो चालाक अफसरान स्पष्टïवादिता के बजाए 'जी हुजूरी' से नहीं हिचकिचाते। तभी तो पुलिस रिफॉर्म की फाइल धूल फांक रही। आतंकी पुलिस की नाक के नीचे से भाग रहे। पर सिर्फ पुलिस मैडल ही नहीं, अपना सर्वोच्च राष्टï्रीय सम्मान भारत रत्न भी राजनीति से सराबोर। तभी तो इंदिरा गांधी को 1971 में राजीव गांधी को मरणोपरांत 1991 में ही भारत रत्न मिल गया। पर सरदार पटेल को 1991 में, मौलाना अबुल कलाम आजाद को 1992 में। सुभाष चंद्र बोस को भी 1992 में नवाजा गया। पर सुप्रीम कोर्ट के दखल से नेताजी का नाम लिस्ट से हटाना पड़ा।
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04/01/2010
Monday, January 4, 2010
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