Tuesday, April 13, 2010

आग लगी है! आओ मिलकर खोदे कुआं

तो अब सरकारी फरमान जारी हो गया। आंतिरक सुरक्षा के मसले पर सिवा होम मिनिस्ट्री के कोई जुबान नहीं खोले। केबिनेट सेक्रेटरी के.एम. चंद्रशेखर का सर्कुलर सभी विभाग को पहुंचा। तो इशारों ही इशारों में नसीहत अपने सेना प्रमुखों को थी। दंतेवाड़ा नक्सली हमले के बाद बदहवासी में जैसी बयानबाजी हुई। छत्तीसगढ़ के सीएम रमण सिंह ने तो बाकायदा एतराज भी जताया था। पर सोमवार को वायुसेना प्रमुख पीवी नाईक ने फिर सवाल उठाया। अगर नक्सलियों के खिलाफ हवाई बम गिराए गए। तो ढ़ाई सौ किलोग्राम वाले बम का असर कम से कम आठ सौ मीटर तक होगा। सो पहले जनहानि की स्पष्ट नीति तय हो। यों नाईक की बात सोलह आने सही। वायुसेना घरेलू जंग के लिए नहीं बनाई गई। अन्य देशों से लड़ाई के हिसाब से मारक क्षमता वाले अस्त्र-शस्त्र तैयार किए गए। अब वाकई उन बमों का इस्तेमाल अपने ही देश में हो। तो नक्सलियों को नुकसान होगा ही, आसपास रहने वाले निर्दोष लोगों की कई पीढिय़ां उसके दुष्परिणाम भुगतेंगी। जैसे जापान में हिरोशिमा-नागासाकी के लोग भुगत रहे। इराक-अफगानिस्तान में भी अमेरिकी बमों का असर आनेे वाली पीढियों पर दिखने लगा है। सो वायु सेना प्रमुख जो कह रहे, वह हथियारों की मारक क्षमता को समझते हुए। पर नक्सली हमले में 76 जवानों की मौत ने राजीतिक व्यवस्था को हिलाकर रख दिया। सो होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने वायु सेना के इस्तेमाल की संभावना जता दी। तो थल सेना के इस्तेमाल की जरुरत पर भी बहस छिड़ गई। पीएम से लेकर होम मिनिस्टर तक। थल सेना प्रमुख से वायु सेना प्रमुख तक। मंत्रियों से लेकर राजनीतिक दलों तक। सबके बयानों में विरोधाभास दिखने लगा। अब सर्कुलर तो जारी हो गया, पर नेताओं की जुबां पर कौन लगाम कस सकता? अपनी व्यवस्था की तो अजब कहानी हो चुकी। जैसे आतंकवादी हमलों के बाद अपना तंत्र मुस्तैद होता था। अब नक्सलवादी हमले में भी वही हाल हो गया। ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरु तो कर दिया। नक्सलियों को डरपोक-कायर कहकर उकसाने की कोशिश भी शुुरु कर दी। ताकि नक्सली सामने आकर लड़े। पर गुरिल्ला युद्ध में माहिर नक्सलियों ने जवानों को छकाया। पहली बार इतनी बड़ी तादाद में अपने जवान में मारे गए। तो भी सीआरपीएफ से लेकर होम मिनिस्ट्री तक, सबने जवानों के प्रशिक्षण पर उठे सवाल खारिज कर दिए। पर कहते हैं ना, झूठ के पांव नहीं होते। अब सरकार ने तय किया, सीआरपीएफ के जवानों को कमांडो और गुरिल्ला युद्ध में माहिर करने को पूर्व सैनिक भर्ती किए जाएंगे। यानी जंगल युद्ध में निपुण रहे रिटायर्ड फौजी अब सीआरपीएफ को ट्रेंड करेंगे। पर यह कैसी व्यवस्था, जो बीती घटना के हिसाब से खुद को तैयार करती? अगर कल को नक्सली भी आतंकियों की तरह कोई और तरीका अपनाए। तो क्या फिर जवानों के नए सिरे से ट्रेनिंग दी जाएगी? क्या व्यवस्था के पास अपना कोई विजन नहीं? क्या सिर्फ जुबान चलाना ही राजनीतिक व्यवस्था की खासियत? मौजूदा व्यवस्था का रुख देखकर तो यही आभास हो रहा। तभी तो आग लगने के बाद कुआं खोद रहे। नक्सलियों ने 76 जवान मार दिए। तो अब सरकार को ट्रेनिंग याद आ रहा। वाकई नक्सली युद्ध में अपने जवान तो झोंक दिए जाते। पर उनकी सुविधा की फिक्र शायद ही कोई करता। जंगली क्षेत्र से नावाकिफ सुरक्षा बलों को सिर्फ आदेश दिया जाता। फलां जगह जाकर कैंप करो। पर कैसे जाना है, कौन आगे का रास्ता बताएगा या रास्ते में कौन सी समस्याएं आ सकती हैं, यह बताने वाला कोई नहीं। बड़े अधिकारी तो एसी कमरों में बैठकर सिर्फ फरमान जारी कर देते। यही हाल अधिकारियों के ऊपर बैठे राजनीतिक आकाओं की। तभी तो जैसे नक्सली हमले के बाद ट्रेनिंग की बात हो रही। कुछ वैसा ही हाल महिला आरक्षण बिल का। राज्यसभा से बिल पास हो गया। तो लोकसभा में आम सहमति की कवायद हो रही। बिल में संशोधन की गुंजाईश पर भी मंथन हो रहा। पर महिला बिल का विरोध राज्यसभा में पारित कराने से पहले भी था। सो आम सहमति के प्रयास पहले ही कर लेते। वरना, जैसे राज्यसभा में पास कराया, कांग्रेस वैसी ही हिम्मत लोकसभा में भी दिखाए। पर आग लगने के बाद कुआं खोदना अपनी राजनीति की आदत। अब देखो, राज्यसभा से भले बिल पास हुआ। पर आरक्षण के बाद मुश्किलें किसकी बढेंगी। लोकसभा के करीब 138 उन सांसदों की परेशानी बढेगी, जिनकी सीटें आरक्षण की भेंट चढेगी। सो विरोध के स्वर सभी दलों में। आखिर जिन क्षत्रपों की परंपरागत सीटें जाएंगी, वह क्या करेंगे? सवाल महिला आरक्षण बिल के समर्थन या विरोध का नहीं है। अलबत्ता करीब 138 सांसदों के राजनीतिक कैरियर का है, जो बिना सांसद बने बिन पानी मछली हो जाएंगे। सो तड़प अपना अस्तित्व बचाने की। पर विरोध के लिए अलग-अलग पैतरे आजमाए जा रहे। कोई पिछड़ों की, तो कोई मुस्लिमों के आरक्षण की आवाज बुलंद कर रहा। कभी उलेमा फतवा जारी कर रहे, कभी पर्सन लॉ बोर्ड। खुद बीजेपी-कांग्रेस के ज्यादातर नेता बिल के हक में नहीं। अब आप ही सोचिए, जब परिसीमन को लेकर इतना बखेड़ा हुआ था। तो महिला बिल पर क्या होगा, यहां तो अस्तित्व की लड़ाई है। तभी तो आपसे कहा, देश की सुरक्षा का मामला हो या आधी आबादी के हक की लड़ाई का। आग लगने के बाद कुआं खोदने में मशगूल हैं अपने नेता। -----

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