एक मशहूर कहावत है- भानुमती ने खसम किया, बुरा किया। करके छोड़ा, उससे बुरा किया। छोडक़र फिर पकड़ा, ये तो कमाल ही किया। अब बीजेपी बुरा न माने, पर झारखंड में बीजेपी-झामुमो का रिश्ता कुछ ऐसा ही हो गया। जब शिबू संग दिसंबर में बीजेपी ने गलबहियां कीं। तो राजीव प्रताप रूड़ी जैसे कइयों ने आपत्ति जताई थी। पर तब बीजेपी ने सभी रूडिय़ों की राय को निजी बता खारिज कर दिया। अबके कट मोशन में शिबू ने दगा किया। तो बीजेपी दगाबाज बता दूर हो गई। समर्थन वापसी का फैसला बुधवार को हुआ। शुक्रवार आते-आते फैसला टल गया। बीजेपी ने जनता के हित में लिया समर्थन वापसी का फैसला अपने हित की खातिर होल्ड पर रख दिया। अब होल्ड तो सिर्फ दिखावा। असल में फैसला रद्द समझिए। अब झारखंड में सिर्फ नेतृत्व परिवर्तन होगा, गठबंधन में कोई बदलाव नहीं। बीजेपी पार्लियामेंट्री बोर्ड शुक्रवार को फिर बैठा। तो सहमति बन गई, नए फार्मूले पर सरकार बनाई जाए। सो अब कोई शक नहीं, शिबू की झामुमो के सहयोग से बीजेपी अपना सीएम बनाएगी। पर बाप-बेटा गच्चा न दे जाएं, सो पहले दो-टूक बात करने का फैसला हुआ। अब शनिवार को बीजेपी के रणनीतिकार बाप-बेटे से बात करेंगे। फिर बीजेपी स्टेट यूनिट के साथ शिबू-हेमंत बैठेंगे। आमने-सामने की बातचीत में मंत्रालयों की बंदरबांट होगी। ताकि शिबू बहुमत साबित करने से पहले देवगौड़ा की तरह ही कोई तेरह सूत्री फार्मूला न थमा दें। कर्नाटक में देवगौड़ा ने येदुरप्पा को सीएम बनवा दिया। पर विश्वासमत से पहले राजनाथ को तेरह सूत्री शर्त भेज दी। सो सात दिन में ही येदुरप्पा की सरकार गिर गई थी। अब कहीं शपथ ग्रहण के बाद शिबू-हेमंत ने कोई नई शर्त रख दी। तो अभी ही ऊहापोह में फंसी बीजेपी का तब क्या होगा। सो हर कदम फूंक-फूंक कर रख रही। शनिवार को शिबू-हेमंत के अलावा सभी सहयोगियों से भी बात होगी। नई सरकार का पूरा रोड मैप बनेगा। ताकि बीजेपी की रहनुमाई में बनने वाली सरकार अस्थिरता के भंवर में फंसी न रहे। बीजेपी ने जिस शिबू को विश्वासघाती बताया। अब उन पर उतना ही एतबार। बीजेपी को लग रहा, अपना सीएम बना, तो शिबू अपने बेटे हेमंत को डिप्टी सीएम बनवाएंगे। यानी शिबू को अपने बेटे के राजनीतिक कैरियर की फिक्र होगी। सो सरकार की स्थिरता बनी रहेगी। पर झामुमो के दो बड़े नेताओं ने वीटो लगा दिया। साइमन मरांडी और टेकलाल महतो एनडीए के साथ जाने के खिलाफ। दोनों ने एलान कर दिया, हम यूपीए के साथ सरकार चाहते हैं। शिबू के वोट का मतलब भी यही बताया। पर शिबू की असली रणनीति कुछ और थी। शिबू को अपनी खातिर कोई सीट नहीं मिल रही थी। सो यूपीए को पटाने की कोशिश की। अपनी मर्जी से सरकार के पक्ष में वोट किया। ताकि कांग्रेस गदगद हो अपनी गोद में बिठा ले। फिर झारखंड में बेटा, तो केंद्र में अपनी बात बन जाए। पर कांग्रेस ने भाव नहीं दिया। वैसे भी एक-दो वोट से सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडऩे वाला था। सो कांग्रेस ने बेवजह आफत मोल लेना मुफीद न समझा। अब शिबू-हेमंत करते क्या, सो उलटे पांव लौट आए। बीजेपी से मिन्नतें शुरू कर दीं। सीएम की कुर्सी का ऑफर बीजेपी भी ठुकरा नहीं पाई। पर मुश्किल, साइमन और टेकलाल का टेक कैसे हटाए। अब भले मंत्री पद की रेवड़ी से टेक हट जाए। अर्जुन मुंडा या यशवंत सिन्हा में से कोई सीएम हो जाएं। पर बीजेपी जनता और अपने वर्करों को कैसे समझाएगी। आखिर मंगलवार को कट मोशन पर मुंह की खाई। तो बुधवार को शिबू से समर्थन वापसी की चाल चल दी। गुरुवार को गवर्नर से मिलने का टाइम तीन बार बदला। फिर भी समर्थन वापसी की चिट्ठी नहीं सौंप चरित्र दिखा दिया। आखिर में शुक्रवार को चेहरा भी साफ हो गया। जब पार्लियामेंट्री बोर्ड ने अपना ही फैसला रोक लिया। सो शुक्रवार को जब अनंत कुमार ने यह एलान किया, समर्थन वापसी का फैसला होल्ड पर। तो लगा, अपने देश के मतदाता बहुत पहले मैच्योर हो चुके। बीजेपी ने तो जनहित का फैसला होल्ड पर रखा। पर जनता तो बीजेपी को पहले ही होल्ड कर चुकी। छह साल सत्ता में बिठाकर पार्टी विद डिफरेंस देख लिया। सो 2004 के बाद 2009 में भी जनता ने विपक्षी बैंच पर ही होल्ड कर दिया। अब बीजेपी भी जनता के जुल्म-ओ-सितम कब तक सहती। सो बाहरी आवरण उतार दिया। झारखंड में 36 से 30, 30 से 18 सीट पर आ गई। फिर भी कह रही, जनता चाह रही, झारखंड में सरकार बनाए। पर जरा शुक्रवार को हुए पार्लियामेंट्री बोर्ड की कहानी बताते जाएं। आला नेता इस बात को तो राजी थे, अपनी सरकार बन जाए। पर झमेला यही, बुधवार का फैसला शुक्रवार को ही कैसे पलट दें। मीडिया में होने वाली किरकिरी भारी पड़ेगी। सो झारखंड के झमेले पर बोर्ड के सामने तीन बातें रखी गईं। फैसला पलटने से होने वाली फजीहत, शिबू-हेमंत की चिट्ठी और सरकार गठन का नया फार्मूला। आखिर में जब सबने राय दी, तो निचोड़ यही निकला। भले दो-चार दिन मीडिया में फजीहत हो, पर सीएम की कुर्सी नहीं छोडऩी चाहिए। जब सरकार बन जाएगी, तो मीडिया और लोग भूल जाएंगे। आखिर संपादकीय से अपनी राजनीति नहीं चलाई जा सकती। तो समझ गए ना आप। यही है बीजेपी की नई थ्योरी। दो दिन की फजीहत, फिर कुर्सी पर बैठ मौजां ही मौजां। चाल, चरित्र, चेहरा तो 1980 के दशक की बात।
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30/04/2010
Friday, April 30, 2010
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देखो कब होता है मौजां ही मौजां..सपना ही लगता है.
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