तो इसे कहते हैं सत्ते पे सत्ता। भले मनमोहन सिंह की लोकप्रियता का ग्राफ गिर गया। पर लाल किले की प्राचीर से सातवीं बार झंडा फहराने का रिकार्ड बनाएंगे। अटल बिहारी वाजपेयी से आगे निकल तीसरे पायदान पर होंगे मनमोहन। पंडित नेहरू के नाम सत्रह बार का, तो इंदिरा के नाम सोलह बार का रिकार्ड। अपने मनमोहन वहां तक पहुंचेंगे, ऐसी उम्मीद बेमानी। इंडिया टुडे का सर्वे आया, तो वाजपेयी-मनमोहन का फर्क देखिए। करीब ढाई-तीन साल से वाजपेयी सक्रिय राजनीति से दूर। मनमोहन साढ़े छह साल से पीएम। पर पीएम पद के लिए लोकप्रियता का सर्वे हुआ, तो मनमोहन को एक फीसदी लोगों ने पसंद किया। वाजपेयी को सोलह फीसदी ने। लोकप्रियता के मामले में अव्वल रहे कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी। सचमुच बहुत कम समय में राहुल ने युवा वर्ग में खासी लोकप्रियता अर्जित कर ली। सो अब कांग्रेस की मुश्किल, सर्वे को नकारे या स्वागत करे। पर बात लोकप्रियता की, तो देखिए कैसे वाजपेयी आज भी सभी वर्गों में लोकप्रिय। मनमोहन पिछली बार के सर्वे में नंबर वन थे। पर अबके सात उम्मीदवारों में मनमोहन सातवें स्थान पर आए। सो देश की जनता का मूड मौजूदा पीएम के लिए ऐसा हो, तो सातवीं बार झंडा फहराना मनमोहन की उपलब्धि होगी या देश की मजबूरी? आजादी की चौंसठवीं सालगिरह पर यह क्या। एक अर्थशास्त्री पीएम सातवीं बार लालकिले की प्राचीर से जनता को तब संबोधित करेगा, जब महंगाई भी सातवें आसमान पर। सरकार की तानाशाही सातवें आसमान पर। तभी तो संसद में महंगाई से लेकर कॉमनवेल्थ के भ्रष्टाचार और भोपाल गैस त्रासदी तक, बहस तो हुई, पर कोई असर नहीं। अलबत्ता अब मनमोहन सरकार ने अपनी एक थीम बना ली। हर बहस में सरकार एक ही जवाब देती, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले। एंडरसन को राजीव गांधी ने नहीं भगाया, यह सरकार को मालूम नहीं। पर किसने भगाया, इसके भी रिकार्ड नहीं। महंगाई पर तो चाहे जितनी बहस करा लो, कम नहीं होगी। भ्रष्टाचार तो राजनीति का शाश्वत नियम। आने वाले वक्त में भ्रष्टाचार पर भी कोई कॉमनवेल्थ हो जाए, तो अचरज नहीं। वैसे अपना सुझाव यही, लालकिले की प्रचार से मनमोहन एलान कर दें, भ्रष्टाचार मंत्रालय बनेगा। ताकि भ्रष्टाचार से आने वाले धन की निगरानी हो सके और एक हिस्सा सरकारी खजाने में भी जमा हो। अगर पेट्रोल-डीजल की तरह भ्रष्टाचार से अधिक उगाही करनी हो, तो बाकी मंत्रालयों की प्रतियोगिता करवा लो। मुनादी करवा दो- जो मंत्रालय भ्रष्टाचार कोष में जितना धन जमा करवाएगा, उसे और मलाईदार मंत्रालय दिया जाएगा। सचमुच भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी अंदर घुस चुकीं, उखाडऩा मुमकिन नहीं। सो क्यों न भ्रष्टाचार को सरकारी मान्यता दे दी जाए। संसद तक व्यवस्था के घुन को रोकने में नाकाम हो रही। संसद तो सिर्फ कर्मकांड की जगह भर रह गई। अब अंकल सैम ओबामा भारत आ रहे। तो परमाणुवीय दायित्व बिल तोहफा में देने की तैयारी। सो अब मानसून सत्र की अवधि बढ़ेगी। यही होता है, कोई बिल हो या किसी मुद्दे की बहस, सारी रणनीति सदन के बाहर ही तय हो जाती। सो संसद में न बहस का कोई स्तर रहा और ना ही सरकार पर कोई असर पड़ता। संसद की प्रासंगिकता कैसे चौपट हो रही, इसकी एक छोटी सी मिसाल शुक्रवार को भी दिखी। लोकसभा में तकनीकी खामी की वजह से अंग्रेजी अनुवाद सांसदों तक नहीं पहुंच रहा था। ऊर्जा राज्यमंत्री भरत सिंह सोलंकी हिंदी में जवाब दे रहे थे। तभी डीएमके के टीआर बालू हत्थे से उखड़ गए। अंग्रेजी अनुवाद नहीं होने पर एतराज जताया। तो स्पीकर ने तकनीकी खामी का हवाला दे फौरन चैक करने का भरोसा दिया। पर बालू को तो मुद्दा मिल गया। इसी बीच सोलंकी के सीनियर मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने अंग्रेजी में बोलने की हिदायत दी। सोलंकी अंग्रेजी में बोलने लगे। फिर बालू हैडफोन फेंक सदन से जाने लगे। हंगामा बढ़ा, तो सदन कुछ देर के लिए ठप करना पड़ा। फिर बाद में सब ठीक हो गया। तो हिंदी के पैरोकार हंगामा करने लगे। सवाल उठा, अंग्रेजी की ही पैरवी क्यों? तमिल, तेलुगु, मलियाली, उर्दू की बात क्यों नहीं। हिंदी का अपमान सही नहीं। बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे ने एक कदम आगे बढक़र कहा- सभी भाषा एक समान नहीं, अलबत्ता हिंदी राष्ट्रभाषा है। ऐसा दर्जा किसी और भाषा को नहीं। पर सवाल, मुंडे कभी राज या उद्धव ठाकरे की टिप्पणी पर यह दलील क्यों नहीं देते? बीजेपी का मराठी-हिंदी विवाद पर ढुलमुल रुख जगजाहिर। पर बात बालू की। तो इतिहास साक्षी, डीएमके ने भाषायी विवाद की पीएचडी कर रखी। अगर बालू कुछ देर इंतजार कर लेते, तो कोई आफत नहीं आती। पर छोटी सी बात पर संसद को अखाड़ा बनाने वालों ने संघीय ढांचे की फिक्र नहीं की। यही डीएमके 1950 के दशक में अलग द्रविड़ स्थान देश की मांग कर रही थी। अक्टूबर 1963 में संविधान का सोलहवां संशोधन कर अखंड़ता की खिलाफत करने वालों पर रोक लगाई। तो डीएमके वालों ने राज्य स्वायत्तता का राग अलापा था। यह वही डीएमके है, जिसने नारा दिया था- भारत भारत वालों के लिए और तमिलनाडु तमिल लोगों के लिए। भारत के नक्शे तक जलाए गए। उत्तर-दक्षिण में भेदभाव का बीज बोने की कोशिश की। तो क्या अब संसद में भी राज ठाकरे जैसी राजनीति होगी? क्या अपने सांसद संसद को खत्म करने पर आमादा हो गए? क्या आजादी की चौंसठवीं सालगिरह पर सातवीं बार झंडारोहण करने जा रहे मनमोहन सरकार की यही उपलब्धि?
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13/08/2010
Friday, August 13, 2010
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