Saturday, October 31, 2009
...ये 'आग' लगती क्यों नहीं ?
इंडिया गेट से
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...ये 'आग' लगती
क्यों नहीं ?
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संतोष कुमार
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ये आग दो दिन तक नहीं बुझी। गुलाबी शहर आग के धुंए से बदरंग हो गया पर 24 घंटे बाद भी वही लाचारी। आईओसी को न आग की वजह मालूम, न बुझाने के उपाय। समूची व्यवस्था आग बुझने की बाट जोह रही। पर जब सब खाक में मिल जाएगा। तो व्यवस्था का रहनुमा राख हाथ में उठा क्या कसमें उठाएंगे? फिर वही राग अलापेंगे। मामले की जांच होगी। सुरक्षा के नए उपाय ढूंढे जाएंगे। पर यह सब तो सिर्फ कागजों में ही सिमट कर रह जाएगा। और फिर इंतजार होगा एक नए हादसे का। राजनीति और नौकरशाही की सांठगांठ ने जनमानस को हादसों का आदी बना दिया। वरना किसी राज्य की राजधानी में तेल का इतना बड़ा डिपो हो। और सुरक्षा के नाम पर कुछ नहीं। आपदा प्रबंधन की भी पोल खुल गई। याद है ना, 26 दिसंबर 2004 की सुनामी के बाद आपदा प्रबंधन की कितनी बातें हुईं। बाकायदा आपदा प्रबंधन प्राधिकरण भी बना। पर पांच साल बीत गए, क्या आपने कभी चुस्त आपदा प्रबंधन देखा? जब जयपुर जैसी राजधानी का ऐसा हाल। तो सोचिए, कहीं सुदूर गांव में ऐसा हादसा हो। तो क्या होगा। आखिर आग भयावह होने से पहले नियंत्रण क्यों नहीं हो सका। मंत्री से लेकर आईओसी तक लाचारी जता रहे। जैसे भारत में सरकार कुछ भी नहीं, सब कुछ भगवान भरोसे चल रहा। आज डिपो की आग पर ऐसी लाचारी। कल एटमी ठिकाने पर खुदा न खास्ता कुछ हो जाए। तो क्या यही लाचारी दिखाएंगे हम? अगर हम एटम बम रखने की क्षमता रखते हैं तो हमें सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त भी करने होंगे। अगर ऐसी ही लाचारी होगी। तो कल को लश्कर या जैश आकर एटम बम ले जाएं तो क्या होगा? राजनीति-नौकरशाही की सांठगांठ टालू नीति अपना रही। तभी तो व्यवस्था भगवान भरोसे चल रही। गुरुवार की रात सीतापुरा स्थित आईओसी डिपो में आग लगी। पर पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा महाराष्ट्र की सियासी गोटी फिट करने में व्यस्त थे। सो जब डिपो की आग भयावह हो गई। तो क्वनवज्योतिं संवाददाता ने देवड़ा से अगला कदम जानना चाहा। मंत्री से पूछा, जयपुर के तेल डिपो में आग लगी। अब बचाव के क्या उपाय होंगे? तो काबिना मंत्री की काबिलियत भरी टिप्पणी सुनते जाओ। पता नहीं देवड़ा का मिजाज कैसा था। पर मौके की नजाकत को नजरअंदाज कर मंत्री बोल गए- "आग लगी है, तो मैं क्या करूं।" पर मंत्री को शायद गलती का अहसास हो गया। सो फौरन कहा- क्वतेल बिखर जाने के बाद काबू पाना संभव नहीं।ं शुक्रवार को मुरली देवड़ा जयपुर पहुंचे। देवड़ा ने जयपुर में संयत शब्दों में लाचारी जता दी। पर देवड़ा से ज्यादा उम्मीद भी बेमानी। कभी जमीनी राजनीति नहीं की। सो किसी भी बयान में जमीनी टच नहीं दिखेगा। अलबत्ता देवड़ा ऐसी टिप्पणी करते। मानो मंत्री नहीं, किसी कंपनी के सीईओ हों। पर कहते हैं ना, गुस्से या हड़बड़ी में इंसान की असलियत बाहर आ जाती। सो मुरली देवड़ा की जुबानी व्यवस्था की पोल फिर खुल गई। अब आईओसी की मानें, तो सीतापुरा डिपो की आग से 300 करोड़ के नुकसान का अनुमान। यह सिर्फ आईओसी का आंकड़ा। राज्य सरकार का जो नुकसान हुआ, वह अलग। पर करोड़ों के नुकसान के साथ कई लोगों की जानें भी गईं, तो कई जूझ रहे। तो क्या अब नेता और नौकरशाह जागेंगे? या फिर वही कागजी बंदोबस्त और करोड़ों का बजट। जो उपाय पर खर्चने के बजाए सीधे रहनुमाओं के पेट में जाएगा। जहां से डकार भी बामुश्किल आती। अपनी व्यवस्था का यही ढर्रा। तभी तो 21 साल बीत चुके। भोपाल गैस त्रासदी के दंश से हम उबर नहीं पाए। आज भी उस इलाके की मिट्टी जहरीली। पर उसे हटाने का कोई बंदोबस्त नहीं हो सका। अपने जयपुर के इस भीषण अग्निकांड का असली असर तो बाद में ही दिखेगा। पर व्यवस्था को भगवान भरोसे कब तक छोड़ते रहेंगे हम-आप? सड़क चलते राहगीर की हादसे में मौत हो जाए। तो हम भगवान को दोष देते। मुंबई में लोकल ट्रेन पर पानी की पाइप लाइन गिर जाए। तो मरने वाले के नसीब की दुहाई देते। दिल्ली में ही भूकंप का एक बड़ा झटका आ जाए तो शायद 80 फीसदी दिल्ली तबाह हो जाएगी। पर दिखावे को सरकार नई इमारतें खड़ी कर रही है। पुराने का कोई रख-रखाव भी नहीं। मेट्रो के पिलर गिर रहे। फिर भी सुरक्षा मानक की तैयारी नहीं। कोई भी इमारत या रोड बनती, तो बाकायदा उसकी उम्र तय होती है। पर समय रहते कोई इंतजाम नहीं होता। बिहार में कोसी की बाढ़ भी व्यवस्था की भूल का ही नतीजा।पर लोकतंत्र की आड़ में नेताओं ने राजनीति को ऐसा लबादा ओढ़ा दिया कि सड़क हादसे हो या इमारत गिर जाए, मेट्रो का पिलर ढहे या तेल डिपो में आग लग जाए। व्यवस्था ने ऐसी संस्कृति बना दी, आम लोगों में ऐसी चीजें "आग" नहीं बनतीं। जबकि ऐसे हादसों में सोलह आने व्यवस्था दोषी होता है। तेल डिपो के आग मामले में भी इंडियन आयल की गलती साफ हो रही। पहले से रिसाव हो रहा था। पर वक्त रहते बंदोबस्त नहीं किया। सो अब सवाल, आम लोग के दिलों में आग कब लगेगी? ताकि सोई व्यवस्था को जगा सकें। पर यह 'आग' लगती क्यों नहीं? कब तक हम-आप भगवान या किस्मत पर दोष मढ़ेंगे? सरकार जनता के पैसे से चलती है फिर जिम्मेदारी से बच कैसे सकती है?
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३०/१०/२००९
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