मुंबई की लोकल ट्रेनें क्या ठहरीं, अपनी संसद भी ठहर गई। खुद सीएम अशोक चव्हाण ने आंकड़े बताए। तो माना, मोटरमैन की हड़ताल से समूची मुंबई को लकवा मार गया। वाकई लोग काम पर नहीं पहुंच पाए। और जैसे-तैसे कर जो पहुंचे भी, वो काम नहीं कर पाए। सो संसद में जमकर बलवा हुआ। राज्यसभा तो चली, पर लोकसभा नहीं। बीजेपी-लेफ्ट-शिवसेना ने रेल मंत्री ममता बनर्जी को घेरा। पर ममता तो कोलकाता के निगम चुनाव में परचे भरवा रही थीं। सो सरकार को जवाब देना भारी पड़ गया। पवन बंसल ने ममता के दिल्ली लौटते ही बयान का भरोसा दिया, पर बात नहीं बनी। सो अपनी नेता पर हमला देख तृणमूल के सुदीप बंदोपाध्याय कूद पड़े। बंसल के जवाब से खफा सीपीएम के वासुदेव आचार्य ने ममता की गैरहाजिरी पर सवाल उठाए। तो सुदीप आपा खो बैठे। हाथों से इशारा करते हुए चुप... चुप...। बंगाली में ही ऐसी गाली का इस्तेमाल हुआ, जो लोकसभा में पहले भी हो चुका। सो हंगामा हड़ताल से हटकर सुदीप पर टिक गया। स्पीकर मीरा कुमार ने मौके की नजाकत भांप सदन स्थगित कर दिया। पर विपक्ष ने रार ठान ली, सुदीप माफी मांगें, तभी सदन चलने देंगे। अब देर शाम हड़ताल तो खत्म हो गई। पर संसद का क्या, उसकी गरिमा तो न जाने कितनी बार खत्म हुई। सुदीप बंदोपाध्याय ने स्पीकर से मुलाकात के बाद भी यही खम ठोका, किसी सूरत में माफी नहीं मांगेंगे। अलबत्ता सुदीप ने बीजेपी-लेफ्ट से माफी की मांग कर दी। सुदीप बोले, संसद में कैसा व्यवहार करना है, यह मुझे कोई और न सिखाए। वाकई सुदीप को किसी और से सीखने की क्या जरूरत, जब इतनी तेज-तर्रार नेत्री की रहनुमाई में काम कर रहे। सनद रहे, सो सदन की मर्यादा वाले दो-चार किस्से बताते जाएं। शुरुआत ममता बनर्जी से ही। चौदहवीं लोकसभा में सोमनाथ चटर्जी स्पीकर थे। चार अगस्त 2005 की बात है, स्पीकर ने ममता का कामरोको प्रस्ताव खारिज कर दिया। ममता की शिकायत थी, बंगाल में वाम मोर्चा सरकार बांग्लादेशी घुसपैठियों को फर्जी तरीके से वोटर बना रही। पर मौका नहीं मिला, तो दोपहर बाद जब आसंदी पर डिप्टी स्पीकर चरणजीत सिंह अटवाल आए। तो ममता धड़धड़ाते हुए वैल में घुसीं। अपने साथ लाए तमाम दस्तावेज आसंदी के मुंह पर दे मारे। साथ में कारण सहित अपना इस्तीफा भी सौंप दिया। ममता कुछ ऐसा ही 1997 में भी कर चुकीं, जब रामविलास पासवान रेल मंत्री थे। रेल बजट में बंगाल की उपेक्षा का आरोप लगाकर वैल में घुसीं और आसंदी पर शॉल फेंक दिया। साथ में सांसदी से इस्तीफा भी। पर न स्पीकर सोमनाथ ने इस्तीफा मंजूर किया, और ना ही पी.ए. संगमा ने। किसी सांसद का इस्तीफा तभी मंजूर होता, जब बिना कारण बताए इस्तीफा दे। यानी ममता इस्तीफे के प्रति कितनी ईमानदार थीं, यह तो इतिहास। पर संसद की मर्यादा को तार-तार करने वाले इक्के-दुक्के नहीं, अलबत्ता हमाम में सभी एक जैसे। सुदीप ने लोकसभा में तेवर दिखाए। तो वासुदेव आचार्य ने बाहर हैरानी जताई, तीस साल में कभी सदन में ऐसा बर्ताव नहीं देखा। पर आचार्य शायद तेरह मार्च 2007 का वाकया भूल रहे। लेफ्ट फ्रंट की बैसाखी पर मनमोहन सरकार थी। तबके जहाजरानी मंत्री टी.आर. बालू ने सामुद्रिक विश्वविद्यालय बिल सदन में पेश किया। तो वासुदेव की रहनुमाई में लेफ्ट ब्रिगेड सीधे मंत्री तक बिल छीनने पहुंच गया। सदन में दो बार जबर्दस्त हाथापाई, धक्कामुक्की हुई। ऐसा लगा, मानो सरकार में सिविल वार शुरू हो गया। फिर भी वासुदेव कह रहे, सदन में ऐसा बर्ताव कभी नहीं देखा। तो तकनीकी तौर पर सही ही कह रहे। जब लेफ्ट सत्ता की रिमोट थामे बैठा था, तब वासुदेव ने अपनी हरकत देखी नहीं, दिखाई थी। पहली बार ऐसा देखा है, सो तकनीकी तौर पर सही। पर गाली-गलौज का असली नमूना तो 24 अगस्त 2006 को देखा था। जब लालू और प्रभुनाथ ने भोजपुरी स्टाइल में एक-दूसरे की आरती उतारी। मां-बहन की गाली से लेकर बहन-बहनोई की रिश्तेदारी तक को भी नहीं बख्शा। सुदीप ने जो गाली दी, वह तबके स्तर से तो कम ही थी। पिछले साल 24 नवंबर को राज्यसभा में अमर सिंह और बीजेपी के एस.एस. आहलूवालिया की भिड़ंत भी कम नहीं। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आठ मार्च को राज्यसभा में जो हुआ, याद ही होगा। पर सवाल, आखिर कब तक संसद हूटिंग ब्रिगेड को देखती रहेगी। क्या कभी ऐसा भी होगा, जब संसद ऐसे नेताओं को अपनी ताकत दिखाएगी? संसद अपने देश की सबसे बड़ी पंचायत। अगर किसी मांग पर सरकार तानाशाही दिखाए। तो हंगामा कर विरोध जताना जायज। पर हंगामे के बाद संसद में बहस का स्तर क्या रहता है? आईपीएल पर चार दिन संसद ठप रहा, पर नतीजा क्या? महंगाई पर दर्जनों बार बहस हुईं, पर नतीजा क्या? मिर्चपुर में दलित जिंदा जला दिए गए, पर संसद के लिए सिर्फ पांच मिनट का मुद्दा बना। आए दिन प्रश्नकाल ठप हो रहे। दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारी चिंता जता चुके। पिछले शुक्रवार को लोकसभा में ग्रीन ट्रिब्यूनल बिल पास हुआ। पर सांसदों की मौजूदगी हैरानी पैदा करने वाली। पूरे तीन घंटे की बहस के वक्त कुल मिलाकर तेरह से सत्ताईस सांसद ही मौजूद। ऐसा ट्रिब्यूनल बना, जो पर्यावरण संबंधी तमाम मामले देखेगा। पर सांसद गैरहाजिर रहे। संविधान में प्रावधान, कोरम पूरा नहीं हो, तो सदन नहीं चल सकता। पर सत्तापक्ष और विपक्ष में अलिखित समझौता। सो यह परंपरा बन गई। न कोई सवाल उठाता, न कोरम की जरूरत महसूस होती।
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04/05/2010
Wednesday, May 5, 2010
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