Tuesday, June 1, 2010

बहाली एनएसी की, बयां कर रही हाल सरकार का

मेंगलोर हादसे के 11वें दिन सरकार ने रपट जारी करके ही दम लिया। पर रिपोर्ट टू द पीपुल से पहले बात झारखंड की। झारखंड में राष्ट्रपति राज लग गया। गवर्नर ने अपनी रपट केंद्र को भेज दी थी। सो मंगलवार को केबिनेट ने सिफारिश मंजूर कर राष्ट्रपति को भेज दी। पर महीने भर से बटेर ढूंढ रही बीजेपी बौखला उठी। सो बीजेपी के कानूनदां महासचिव रविशंकर प्रसाद कांग्रेस पर बरसे। आरोप मढ़ा, राष्ट्रपति राज के जरिए कांग्रेस सौदेबाजी का रास्ता बना रही। पर कोई पूछे, महीने भर से बीजेपी-शिबू के बीच क्या हो रहा था? क्या गरमी के मौसम में रेन डांस कर रही थी बीजेपी? ये तो वही बात हो गई, हम करें तो लीला, वो करें तो करेक्टर ढीला। वैसे भी झारखंड में राष्ट्रपति राज के सिवा कोई विकल्प नहीं। पर रविशंकर बाबू की दलील, विधानसभा निलंबित नहीं, बर्खास्त कर नए चुनाव हों। अगर वाकई बीजेपी इतनी ईमानदार, तो सोमवार को ही यह मांग क्यों नहीं रखी? अलबत्ता सोमवार को भी जीभ लपलपा रही थी। यों निलंबित विधानसभा में बीजेपी कोई उपवास नहीं करेगी। अलबत्ता झामुमो ने सीएम की कुर्सी दी, तो फिर सत्ता का फलाहार करने में परहेज नहीं करेगी। वैसे संवैधानिक प्रक्रिया भी यही कहती। अगर कोई राजनीतिक दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, तो पहले विधानसभा को निलंबित कर राष्ट्रपति राज होना चाहिए। ताकि इस बीच राजनीतिक दल आपस में फिर विचार-विमर्श कर लोकतांत्रिक सरकार के गठन की कोशिश करें। फिर भी कोई हल न निकले, तो विधानसभा भंग करना आखिरी विकल्प। सो झारखंड में अब तक जो हुआ, कांग्रेस या गवर्नर पर उंगली उठाना मुनासिब नहीं। सत्ता की बंदरबांट का इतना लंबा ड्रामा चला और केंद्र ने गवर्नर से रपट नहीं मांगी, यही बड़ी बात। फिर भी बीजेपी हांडी कांग्रेस के सिर फोड़ रही। तो यह महज खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे वाली कहावत को चरितार्थ करना। पर अब झारखंड की बाजी कांग्रेस के हाथ आ गई। सो बीजेपी लाख छटपटाए, अब वही होगा, जो दस जनपथ को मंजूर। अगर कांग्रेस का गणित बैठ गया, तो सरकार बनेगी। पर बीजेपी-झामुमो ने फिर कोई जमा-खर्च किया। तो वही होगा, जो बिहार में हुआ था। शुरुआत में विधानसभा निलंबित थी। पर जैसे ही पासवान के एमएलए टूटकर नीतिश संग जाने लगे। तो तबके गवर्नर बूटा सिंह ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश भेज दी। यानी झारखंड में अगर घोड़े कांग्रेस के अस्तबल में गए, तो ठीक। भाजपा के अस्तबल में गए, तो अंजाम सबको मालूम। सो राजनेताओं की जुबान का क्या भरोसा। अब मंगलवार को मनमोहन ने दूसरी पारी का पहला रिपोर्ट कार्ड जारी किया। तो यूपीए के फ्लैगशिप प्रोग्राम का ही बखान हुआ। आरटीआई, शिक्षा का हक, मनरेगा, स्वास्थ्य मिशन, भारत निर्माण आदि आदि। सरकार के कामकाज को उम्दा बताया। लगे हाथ दूसरे साल का संकल्प भी बता गए। खाद्य सुरक्षा बिल आएगा। विकास की दर साढ़े आठ फीसदी के पार जाएगी। नक्सलवाद से दृढ़ता से निपटेंगे। पर सबसे अहम दावा महंगाई से निपटने का। मनमोहन ने फिर भरोसा दिलाया, महंगाई पर जल्द काबू पाएंगे। पर कोई पूछे, पिछले पांच साल से महंगाई लगातार बढ़ क्यों रही? कभी ऐसा क्यों नहीं दिखा, जब रोजमर्रा की चीजों की कीमतें कम हुई हों। फिर भी मनमोहन अपने कामकाज को उम्दा बता रहे। अगर मनमोहन की पहली पारी छोड़ दें। तो दूसरी पारी के पहले साल में ही इतने कारनामे हुए, सरकार अराजक माहौल में दिखी। मनमोहन मजबूत तो हुए। पर कभी मंत्रियों का बड़बोलापन, तो कभी ममता का रूठना। कभी राजा पर करुणा की जिद, तो कभी विदेश, नक्सल जैसी नीतियों पर ऊहापोह। महंगाई तो सरकार के हर दावे के बाद बढ़ती ही गई। सो अब सोनिया गांधी ने खुद कमान संभाल ली। पहली पारी में दो साल बाद ही मृत हुआ एनएसी दूसरी पारी के दूसरे साल में जिंदा हो उठा। यूपीए-वन में लाभ के पद का मामला ऐसा बवंडर खड़ा कर गया। सोनिया गांधी को सांसदी तक छोडऩी पड़ी थी। कांग्रेस नेता की शिकायत पर जांच के बाद 17 मार्च 2006 को जया बच्चन को लाभ के पद की वजह से बर्खास्त किया गया। पर यह कांग्रेस के लिए ही बर्र का छत्ता बन गया। सो 23 मार्च को सोनिया गांधी ने सांसदी से इस्तीफा दिया। फिर कोई पेच न फंसे, सो सोनिया ने राजीव गांधी फाउंडेशन से लेकर तमाम पद छोड़ दिए। पर तब कानून बन जाने के बाद भी एनएसी बहाल नहीं हुई। अबके बहाल हुई, तो मतलब साफ, सरकार का कामकाज उम्दा नहीं। सो सोनिया की रहनुमाई वाली एनएसी में फिर हर क्षेत्र के विशेषज्ञ जोड़े जाने लगे। मंगलवार को चौदह हस्तियों का एलान भी हो गया। हर्षमंदर, अरुणा राय, नरेंद्र जाधव आदि सोनिया के सलाहकार होंगे। यानी नीतियां एनएसी और सोनिया तय करेंगी। मनमोहन की टीम अमल करेगी। सो बड़बोले मंत्रियों की सांस अभी से फूलने लगी। यों संवैधानिक तौर से देखो, तो सोनिया की केबिनेट सही नहीं। पर जब संगठन कमजोर हो, तो सरकार तानाशाह हो जाती। सत्ता में अहंकार हो जाता। वैसे भी मनमोहन की दूसरी पारी का पहला साल कुछ ऐसा ही रहा। सो एनएसी के बहाने सोनिया की समानांतर केबिनेट भले विपक्ष को मुद्दा थमाए। पर शायद जनता के हित में सरकार पर अंकुश लगाने का सही फार्मूला। यानी मनमोहन भले कितना भी दावा करें, पर एनएसी की बहाली सरकार का हाल बता रही।
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01/06/2010

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